Sunday, August 30, 2015

ऐसी तो न थी जिंदगी : इतिहास के दुखद पन्ने

Top post on IndiBlogger.in, the community of Indian Bloggers
बंदी बनाए जाते बूढ़े बादशाह 
जो व्यक्ति आने वाले समय को ध्यान में रखकर वर्त्तमान के फैसले लेता है,वह दूरदर्शी कहलाता है.लेकिन जो आने वाले समय तो दूर, वर्त्तमान से भी बेखबर हो उसे क्या कहा जाए? लेकिन, शायद यही नियति होती है.

वे अच्छे गजलगो,निहायत पोशीदा और जहीन इंसान थे.पर,अच्छे शासक के गुण न थे.शायद,अच्छे अभिभावक भी न बन पाए.वतन में दो गज जमीं की तलाश में रंगून की जेल में आखिरी सांस ली.दिल की हसरतें दिल में ही दफ्न हो गईं .........

इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

कितना है बदनसीब ज़फ़रदफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

हालांकि चर्चित इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल अपनी किताब ‘दि लास्ट मुग़ल’ में लाहौर के शोधकर्त्ता इमरान खान के हवाले से “उम्र-ए-दराज़ से माँग लाए थे चार दिन बहादुर शाह जफ़र के लिखे होने से इंकार करते हैं.

आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र के बंदी बनाए जाने के बाद उनके परिवार की स्त्रियों और बच्चियों के साथ जो हश्र हुआ,उसके बारे में शायद इतिहास मौन ही है.बंदी बनाए जाने के पहले बूढ़े बादशाह ने अपनी चहेती शहजादी कुलसुम जमानी बेग़म को याद फ़रमाया.कुलसुम ने तिन दिन से कुछ खाया नहीं था.गोद में वर्ष की एक बच्ची थी.जब वह बादशाह के सामने पहुंची,बादशाह मुसल्के पर बैठे गंभीर मुद्रा में कोई आयत बुदबुदा रहे थे.घूमकर बेटी को देखा,सर पर हाथ रखा और बोले,’कुलसुम,लो अब तुमको खुदा को सौंपा,तुम अपने खाबिंद को लेकर फ़ौरन कहीं चली जाओ,हम भी जाते हैं.’

बादशाह ने शहजादी के पति मिरजा जियाउद्दीन को कुछ जवाहरात देकर विदा किया और उनके साथ अपनी बेगम नूरमहल को भी साथ कर दिया.गांव कौराली पहुंचकर सब रथवान के अतिथि बने,बाजरे की रोटी और छाछ खाने को मिली.अगले दिन गिर्द-नवाह में यह खबर तेजी से फ़ैल गयी कि शाही रथवान के घर बादशाह की शहजादी और बेग़म ठहरी हुई हैं.दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी और उसमें से बहुत से लोगों ने उन्हें लूट लिया.कौराली के जमींदार ने इस लुटे-पिटे काफिले को वहां से निकला.कुलसुम के अनुरोध पर बैलगाड़ी करके काफिला शाही हकीम मीर फैज अली के घर पहुंचा.उन्होंने गोरे फौजियों के भय से रखने से इंकार कर दिया.कौराली का जमींदार शहजादी के अनुरोध पर सबको हैदराबाद के सफ़र पर चल पड़ा.

तीसरे दिन  नदी के किनारे कोयल के नवाब की फौज डेरा डाले मिली.उसने काफ़िले को नदी पार करवा दी.थोड़े ही फासले पर एक खेत के निकट अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ हो गयी.एक गोला खेत में आकर गिरा और फसल में आग लग गयी.मुग़ल शहजादी कंधे से अपनी बच्ची जैनल को लगाये दौड़ने लगी.नूरमहल और हफिल सुल्तान बेहोश होकर गिर पड़ीं.सिर की चादरें पीछे उलझ कर गिर पड़ीं.कुलसुम के आंसू आ गए.नंगे पांव लहूलुहान हो गए.जैसे-तैसे हैदराबाद पहुंचे.वहां भी शांति नहीं मिली.पीत वस्त्र धारण कर सब जोगी बन गए और पानी के जहाज पर बैठ कर मक्का रवाना हो गए.

शाही खानदान की शहजादियों में एक थी चमनआरा.बूढ़े बादशाह की पोती डोली में सवार होकर दिल्ली दरवाजे से बाहर आई.अंग्रेज सिपाहियों ने उनकी डोली रोक ली.उनके भाई जमशेद शाह नामी ने तलवार लेकर सिपाहियों का मुकाबला किया लेकिन घायल होकर पत्थरों पर गिर पड़े.इसी सदमे में उनकी मौत हो गई.सिपाहियों ने सारा माल लूट लिया और एक सिपाही ने अंग्रेज अफसर से चमनआरा को मांग लिया.चमन आरा जो किले में फूलों पर सोती,वह सिपाही के घर गई.नन्हीं सी उम्र थी.पैर दबाने से लेकर रसोई का सारा काम उसे संभालना पड़ा.

शहजादी रुखसाना का भविष्य बहुत दर्नाक साबित हुआ.उसकी उम्र 13 वर्ष थी जब 1857 का विद्रोह हुआ.आखिरी मुग़ल का किले से भागकर हुमायूं के मकबरे में जाना,परिवार पर बिजलियां गिरने जैसा था.जो जहाँ भाग सकता था,भाग रहा था.अंग्रेजी फौज के जासूस बूढ़े बादशाह को पकड़ने की तरकीबें ढूंढ रहे थे.रुखसाना बादशाह के लश्कर के साथ नहीं जा सकी.

किला उजड़ गया और अंग्रेजों ने किले को अपने कब्जे में ले लिया.बड़ी दाई उसे लेकर अंग्रेजी फौज के जनरल के पास पहुंचकर अपनी विपदा सुनाई.जनरल ने उसे एक रात अपने कैंप में रखा और अगले दिन एक सैनिक अधिकारी के सुपुर्द कर दिया.वहां से भागकर वह उन्नाव पहुंची.एक जमींदार के घर पनाह मिला जहाँ उसकी शादी हुई.आपसी रंजिश में जमींदार मारा गया और वह फिर सड़क पर आ गयी.वहां से भाग कर दिल्ली पहुंची जहां एक कहार के घर रोटी पकाने का काम मिला. कहार के बेटे से एक दिन झगड़ा हुआ और उसने उसे अधमरा कर यमुना के किनारे फेंक दिया.कुछ स्त्रियों ने उसे सरकारी दवाखाना पहुंचाया.फिर भूख और बेकारी से आजिज होकर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर भीख मांगने लगी.

उन दिनों की सबसे दर्दनाक दास्तान गुलबदन की है जो गुलबानो के नाम से भी जानी जाती थी.वह मिर्जा दाराबख्त की बेटी और बादशाह की पोती थी.विद्रोह के नौ महीने बाद,दुखों के पहाड़ से गुजरती हुई,अपनी बीमार मां के साथ दरगाह हजरत चिराग दिल्ली में फटे और बोसीदा कंबल से मुंह ढंके सो रही थी कि एकाएक मां के कराहने पर उठ बैठी तो देखा कि मां बुखार में तप रही थी.शरीर का मांस सूख चुका था.भूख ने कमर तोड़ दी थी.गुलबानो ने कई दिनों से कुछ नहीं खाया था.

रात के अंतिम पहर में घनघोर बारिश में बिजली चमकने से पास में स्थित संगमरमर की एक कब्र चमक उठती,यह कब्र गुलबानो के पिता की थी.सर्दी बारिश और बुखार के कारण गुलबानो की मां सुबह होते-होते जन्नत सिधार गयी.गुलबानो मां से लिपटकर ऐसा रोई कि फिर कभी नहीं उठ सकी.कहा जाता है कि दोनों मां-बेटी सात दिनों तक दरगाह में पड़ी चील-कौओं का खुराक बनीं.

काश !  अंग्रेज अफसर थोड़ी दरियादिली दिखाते और औरतों,बच्चियों को सम्मानपूर्वक इच्छित जगह पर जाने की इजाज़त देते.

Sunday, August 23, 2015

पाओलो कोएलो को पढ़ते हुए

Top post on IndiBlogger.in, the community of Indian Bloggers

कहा जाता है कि किसी भी समाज की संस्कृति,रीति-रिवाज,धर्म,दर्शन का व्यापक प्रभाव उस समाज के लेखकों,चित्रकारों,कलाकारों,फिल्मों पर भी पड़ता है.कई लेखकों की लेखनी,चित्रकारों के चित्रों,फिल्मकारों की फिल्मों में उनका व्यापक नजरिया सामने आता है जो कहीं न कहीं उसके अपने समाज से भी प्रभावित होता है.पाओलो कोएलो को भी पढ़ने पर ऐसा ही महसूस होता है.

ब्राजीलियन लेखक पाओलो कोएलो वैसे तो रहते रियो(रियो दि जेनेरियो) में हैं.लेकिन उनकी मातृभाषा पुर्तगाली है.उनका अधिकांशतः लेखन इसी भाषा में हुआ है.उनकी लेखनी में उस समाज की प्रथा, परंपरा, धर्म,प्रतीकों,जादू,रहस्यमयी ताकतें जैसे प्रतीकों का खुलकर प्रयोग होता है.उनकी कई पुस्तकों में उनका दर्शन,विचार,इस्लाम,ईसाई धर्म के प्रतीक चिन्हों का प्रयोग हुआ है. 

कोएलो के अल्केमिस्ट को उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जा सकता है जो उनकी सबसे अधिक भाषाओँ में अनुवादित कृति भी है.अन्य कृतियों में जो हिंदी अनुवाद में उपलब्ध हैं,उनमें जाहिर,इलेवन मिनट्स,पेड्रा नदी के किनारे,विजेता अकेला,पोर्ताब्लो की जादूगरनी,ब्रिडा प्रमुख हैं.

अल्केमिस्ट सेंटियागो नाम के एक गड़ेरिये और उसके सपनों के हकीकत में में बदल जाने की संघर्षमयी दास्तान है.खजाने की तलाश में वह तमाम बाधाओं को पार कर मिस्त्र के पिरामिड तक जा पहुँचता है.बीच में मिस्त्र के रेगिस्तान को पार करने,शकुनों और ईश्वरीय संकेतों को समझने,कबीलाई संस्कृति और लड़ाईयां,कीमियागर से रोमांचक मुलाकात,कोएलो के विचार,दर्शन सब कुछ एक फंतासी सा लगता है.अल्केमिस्ट में कोएल्हो का एक विचार बार-बार कई पात्रों द्वारा दुहराया गया है जो इस पुस्तक का सूत्र वाक्य भी है.उनके शब्दों में “जब तुम सचमुच किसी वस्तु को पाना चाहते हो तो सम्पूर्ण सृष्टि उसकी प्राप्ति में मदद के लिए तुम्हारे लिए षड्यंत्र रचती है.”

जाहिर व्यावसायिक रूप से सफल एक लेखक की पत्नी के युद्ध संवाददाता बनने और अचानक गायब हो जाने और उसकी तलाश में लेखक के अनेक देशों की यात्राओं कई लोगों से मिलने,जिनमें मिखाइल नामक एक रहस्यमय व्यक्ति भी है.उसके मिर्गी के दौरे,ईश्वरीय संकेतों के समझने,कहीं-कहीं फणीश्वर नाथ रेणु के परती परिकथा की याद दिलाते हैं.जहां गांवों-देहातों में इस तरह के चरित्रों की बहुतायत है.किसी ख़ास दिन किसी औरत पर देवी की सवारी का आना और रहस्यमयी वार्तालाप,लोगों की शंकाओं का समाधान धर्मभीरू लोगों के व्यवहार आदि को बखूबी चित्रित करते हैं.यहाँ कोएलो का विचार और दर्शन साथ-साथ चलता है.ऐसे में कहानी धीमी पड़ जाती है और उनका दर्शन कहानी पर भारी पड़ने लगता है.कहीं-कहीं यह बोझिल सा भी लगने लगता है.

इलेवन मिनट्स कोएलो की ख्याति के अनुरूप कृति नहीं है.यह एक वेश्या मारिया की कहानी पर आधारित है.इसके शुरूआती पन्ने शहरों के फुटपाथों पर बिकने वाले अश्लील साहित्य जैसे लगते हैं. ब्राजील के गांवों का सामाजिक यथार्थ और रियो के चकाचौंध भरे जीवन,किशोरावस्था के सपने, गरीबी,वैभवपूर्ण जीवन जीने की लालसा,भौतिक सुखों की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयास शायद अतिरंजित जैसा लगता है.कोएल्हो की कई पुस्तकों पर हॉलीवुड में फ़िल्में भी बनी हैं.लेकिन उनके अन्य पुस्तकों में अल्केमिस्ट जैसा प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता है.

Tuesday, August 18, 2015

अनुवाद के बहाने....


क्या मूल पुस्तकों के अनुवाद बेहतरीन होते हैं?कम से कम मेरा अनुभव तो इस मायने में कुछ अलग ही रहा है.पिछले दिनों अंग्रेजी की कई पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला और साथ ही उनका हिंदी अनुवाद भी. आज के दौर के कई नामी-गिरामी और बेस्टसेलर लेखकों की कई पुस्तकें बाजार में आई हैं.चेतन भगत,रविंदर सिंह,सुदीप नागरकर,दुर्जोय दत्ता,प्रीति शिनॉय की कई पुस्तकें उपलब्ध हैं.

पाउलो कोएल्हो की अल्केमिस्ट और जाहिर सहित कुछ पुस्तकों का हिंदी अनुवाद कमलेश्वर ने किया है.चेतन भगत की पिछली तीन पुस्तकों का हिंदी अनुवाद (टू स्टेट्स,मिशन 2020,हाफ गर्लफ्रेंड) सुशोभित शक्तावत ने तथा रविंदर सिंह की तीन पुस्तकों  का हिंदी अनुवाद प्रभात रंजन तथा एक पुस्तक का हिंदी अनुवाद बी.बी.सी की पूर्व पत्रकार सलमा जैदी ने किया है.

प्रभात रंजन और सलमा जैदी के अनुवाद बहुत अच्छे रहे हैं.कमलेश्वर का अनुवाद भी बहुत अच्छा है.चेतन भगत की किताबों के हिंदी अनुवाद में कई अंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग किया गया है.ऐसे शब्दों के लिए शायद हिंदी पाठक वर्ग को भी डिक्शनरी की जरूरत पड़ जाय.

मूल अंग्रेजी या अन्य भाषाई पुस्तकों के हिंदी अनुवाद में हिंदी पाठक वर्ग यह तो आशा कर ही सकता है कि उसके मूल भाव यथावत रहें.अंग्रेजी के शब्दों का यथावत प्रयोग इसमें बाधा डालता है.

आज बड़े-बड़े प्रकाशन समूह हैं जो किसी कार्पोरेट कंपनी की तरह काम कर रहे हैं.उनके पास संपादक,अनुवादक से लेकर प्रूफ रीडर तक अनेक कर्मचारियों की फौज होती है.इन सबके बावजूद प्रूफ रीडिंग और अनुवाद की गलतियां पढ़ने का मजा किरकिरा कर देती हैं.

लेखक और प्रकाशन समूह हिंदी के पाठक वर्ग का रोना रोते हैं कि हिंदी भाषा का पाठक वर्ग कम होता जा रहा है लेकिन वे इसकी कमियों को ढूंढने का प्रयास नहीं करते.जरूरत इस बात की है मूल भाषा से हिंदी में अनुवाद करते समय उसके भाव तो यथावत रहें और यथासंभव हिंदी के शब्दों का प्रयोग हो.