Thursday, June 18, 2015

प्रेम की पराकाष्ठा


क्या प्रेम की पराकाष्ठा मृत्यदंड या मौत है? अतीत से लेकर वर्तमान तक ऐसे ढेरों वृत्तांत  हैं जो यही दर्शाते हैं कि हर बार ऐसा नहीं होता.

सुदूर दक्षिण की काशी,कांचीपुरी और 11वीं शताब्दी का एक दिन.महाराज सुंदावा के आदेशानुसार आज एक अपराधी को शूली दंड दिया जाना है.हाट-बाजारों,गली-वीथियों में उत्सुक नर-नारियों की भीड़ उमड़ पड़ी है.खुले वधस्थल में राजकीय जल्लाद की देखरेख में शूली गाड़ दी गयी है.बहुत ऊँचे लोहे की नुकीलीदार शूली.ऊपर चढ़ने के लिए शूली से सटाकर लकड़ी की सीढ़ियां लगायी गई हैं.

राजा की सवारी अभी नहीं आई है,मंत्री,न्यायाधीश,सेनापति,सेना की टुकड़ी और राज-कर्मचारियों का हुजूम अपनी जगहों पर कतारबद्ध और सतर्क है.आसपास के भवनों,महालयों के छज्जों पर उत्सुक नर-नारियों की भीड़ लगी है.

आज यहां एक बड़े भयंकर अपराध के लिए एक युवा कवि को शूली पर चढ़ाया जाएगा.उसे शूली पर लिटाकर तब तक रखा जाएगा जबतक कि उसका शरीर मस्तक से बिंधकर नीचे तक नहीं आ पहुँचता है.

अपराध बहुत बड़ा है.एक साधारण घर-द्वार विहीन यायावर युवा कवि ने महाराज सुंदावा की एकमात्र कन्या विद्या के साथ प्रेम करने का अपराध किया है.विद्या को उसने अपने प्रेमजाल में फांस लिया है.

नगाड़े-तुरहियों की ध्वनि गूंजने लगी है.घुड़सवार अंगरक्षकों की की टुकड़ी से घिरा महाराज सुंदावा का काफिला आ पहुंचा है.महाराज अपने सिंहासन पर विराजमान होते हैं.

आज्ञा के लिए उत्सुक मंत्री से महाराज ने कहा,”अपराधी को लाया जाए.”मंत्री के आदेश से कुछ सशस्त्र सैनिक दौड़कर गए और निकट में ही उपस्थित हाथ बंधे अपराधी को लाकर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया.जनसमूह में मौन छा गया.

न्यायाधीश ने खड़े होकर घोषणा की,’अपराधी कवि बिल्हण,तुम अपने देश कश्मीर से भटकते हुए यहां आये और राजकीय संरक्षण प्राप्त किया.मनोरम काव्य रचना कर यश पाया.तुम्हें राजकुमारी विद्या को विभिन्न शास्त्रों-विद्याओं की शिक्षा देने के लिए उनका शिक्षक नियुक्त किया गया.तुमने राजकीय निष्ठा और अपने कर्तव्यों के प्रति छल किया.राजकुमारी को न देखने की चेतावनी और वर्जना के बाद भी तुमने उन्हें चोरों की भांति अपने प्रेमजाल में फंसाने का गुरुतर अपराध किया है.इसके लिए तुम्हें राज्य-विधान के अनुसार शूली का दंड दिया जा रहा है.क्या तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है?”

उपस्थित जनसमूह युवा कवि को देख रहा था.वह जैसे किसी अन्य लोक में पहुंचा हुआ था.उसे अपने तन-बदन की सुधि नहीं लगती थी.अर्धनिमीलित नेत्र,बुदबुदाते हुए होंठ,कन्धों पर बिखरे बाल,भव्य मस्तक और सांचे में ढला हुआ दमकता शरीर.लोग बैचैन थे कि यह सुंदर युवा और यशस्वी कवि यों बुरी मौत का भागी बनेगा.

उससे कई बार पुछा गया,तो जैसे चौंककर होश में आते हुए वह बोला,”जी नहीं,मैंने राजकन्या विद्या से प्रेम किया,अपना तन-मन समर्पित किया,इससे मुझे कोई इंकार नहीं.......”

न्यायाधीश के आदेश से जल्लाद युवा कवि को शूली के साथ सटे लकड़ी की सीढ़ियों पर ले गए.वह ऊपर तक जा चढ़ा और निर्विकार भाव से यों खड़ा हो गया जैसे किसी अन्य को दंड मिला हो उसे, नहीं.

“अपराधी”,तुम अपनी अंतिम इच्छा बताओ,हम यथासंभव पूरी करेंगे और अपने इष्टदेव को याद कर लो,न्यायाधीश का स्वर गूंजा.

युवा कवि चौंक पड़ा.उसके बड़े-बड़े लंबे पलकों वाले नेत्र जैसे मधु में डूबे हुए हों,ऊपर मुंह कर उसने नीले आकाश और मंद वायु में लहराती वृक्षावलियों की हरीतिमा देखी.जैसे नेत्रों के आगे किसी का मोहक मुखमंडल घूम रहा हो.न्यायाधीश के पुनः पूछने पर वह पौरुषमय मधुर कंपित कंठ से गा उठा......

अद्ध्यापि तां कनकचंपकदाम गौरीम्
फुल्लारविंदवदना नवरोमराजिम्
सुप्तोस्थितां मदन विह्वलसाल सांगीम्
विद्या प्रमाद गलितामिव चिंतयामि |

(आज भी सुवर्ण चंपे की माला सी ,गौरवर्ण-विकसित कमल जैसे मुखवाली,नये-नये रोयेंवाली,सोकर जागी कामदेव द्वारा पीड़िता,अलसाये देहवाली उस विद्या को ही मैं याद कर रहा हूं......”)

सारी जनता मुग्ध हो उठी,राज-परिवार के लोग,सैनिक,स्त्री-पुरुष सबके मुख से धन्य-धन्य के शब्द निकलने लगे.महाराज सुंदावा को लगा जैसे कवि के कंठ से निकले वे मधुर स्वर दिकदिगंत को व्याप्त कर गये हों.वह मंत्रमुग्ध हो गये.

युवा कवि सारे जैसे संसार से विलग होकर अपनी उस प्रेयसी की मधुर याद में मग्न गाता जा रहा था....

अद्ध्यापि तां शाशिमुखी नौवनाढ्याम्
पश्यामि मन्मशरान्रिल पीड़ितांगीम्
गात्रापि संप्रति करोमि शुसीतलानि् |

(मैं इस समय भी यदि उस चंद्रमा के समान मुखवाली,उसके गौरवर्ण,मनोहर,लावण्यमय,कामदेव के बाण से पीड़ित शरीर को देख पाऊं तो अपने इस शरीर को सुशीतल कर लूं.....!)

“धन्य कवि, धन्य ! महाराज सुंदावा के मुख से निकला.वह गद्गद् स्वर में बोले,”तुम्हारे जैसे सुप्रसिद्ध कवि को शूली देना अमानवीय कर्म है.तुम नीचे उतर आओ,तुम अवध्य हो... .”

बिल्हण कश्मीरी कवि था,वह दक्षिण देश की कांचीपुरी में कैसे आया,स्पष्ट नहीं.किंतु वह कांची आया और अपने कश्मीरी सौंन्दर्य,काव्यकौशल तथा विद्वता से सबको मुग्ध कर दिया.महाराज सुंदावा ने उसे अपने आश्रम में रखा.उसे अपनी एकमात्र विदुषी पुत्री विद्धोत्तमा को विभिन्न शास्त्रों में पटु बना देने का भार देकर उसका शिक्षक भी नियुक्त किया.

गुरु-शिष्या के बीच पर्दा लगाने की व्यवस्था हुई.बिल्हण से कह दिया गया कि राजपुत्री कुष्ठ रोग से पीड़ित हैं.उन्हें देखना मना है,और दूर ही रह कर शिक्षा देनी है.राजपुत्री को बताया गया कि बिल्हण जन्मांध हैं.कुमारी कन्या के लिए जन्मांध को देखना अनुचित माना जाता है.अतः ऐसे व्यक्ति से आवरण में रहकर ही शिक्षा प्राप्त करनी है.

दिन बीतते गये.बिल्हण ने विद्या को साहित्य,,काव्य,न्याय,मीमांसा,ज्योतिष,व्याकरण आदि विषयों में शिक्षित करना आरंभ किया.दोनों मेधावी थे,विद्या सहज भाव से विभिन्न शास्त्र-उपशास्त्रों में पटुता प्राप्त करती गयी.

परदे के आर-पार से गुरु-शिष्या के बीच संवाद होते रहे.दोनों एक दूसरे को देख नहीं पाते थे,तथापि विद्या पर बिल्हण की विद्वता तथा स्वर माधुर्य का बहुत प्रभाव पड़ा.बिल्हण भी अपनी शिष्या की प्रतिभा से बहुत प्रभावित था.उसके मन में कुष्ठी राजकन्या के प्रति गहरी सहानुभूति थी.विद्या भी पिता का आदेश मानकर उसे देखने की चेष्टा नहीं करती थी.

सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन आरंभ हुआ.चंद्रमा की कलाओं के साथ मनुष्य के तन मन पर पड़ने वाले तरंगों के उद्वेलन के विषय में पढ़ाई हो रही थी.उस दिन विद्या का ध्यान कहीं अन्यत्र था.उसे ठीक तरह से ध्यान न देते पाकर बिल्हण ने क्रुद्ध होकर कहा,”अरी कुष्ठे राजकन्ये,यह सब जानकर क्या करेगी...?”भिमानिनी विद्या को भी क्रोध आ गया,”मुझे कुष्ठी कहने वाले,तुम तो स्वयं जन्मांध हो,जो रूप-सौंदर्य,चंद्रमा की कलाएं नहीं जानता वह सौन्दर्यशास्त्र क्या पढ़ाएगा ?”

बिल्हण ने उत्तेजित होकर पर्दा खींच दिया.पर्दा गिरते ही दोनों एक दूसरे को देखकर ठगे से रह गये.
दो वर्ष निकल गये.शास्त्र शिक्षण की जगह प्रणय-निवेदन होता रहा.विद्या के गर्भ में बिल्हण का अंश पलने लगा.

प्रणय का छिपना दुष्कर होता है.महाराज को भी पता लग ही गया.फलतः आदेश के उल्लंघन तथा राजकुमारी के साथ प्रणय के अपराध में बिल्हण को बंदी बनाकर शूली का दंड दिया गया.राजकुमारी विद्या ने पिता के रो-रोकर बिल्हण का दंड क्षमा करने की प्रार्थना की,किंतु सब व्यर्थ.बिल्हण ने कांची पुरी की गरिमा में कलंक लगाया था.

बिल्हण ने जब शूली के ऊपर भी अपनी अंतिम इच्छा के रूप में वह कविता सुनानी आरंभ की और इष्टदेव की जगह इष्टदेवी विद्या को ही याद किया,तो राजा से लेकर प्रजा तक सभी अभिभूत हो गये.महाराज सुंदावा ने उसके मृत्युदंड को क्षमा कर दिया.

उसने खुद को चोर-जो राजकन्या के अप्रतिम रस का चोर हो – मानकर उन पदों की रचना की. वह ‘चौर पंचाशिका का कवि बनकर इतिहास में अमर हो गया.महाराज सुंदावा ने उसके अद्भुत समर्पित प्रेम तथा अपनी पुत्री की व्यथा देखकर उन दोनों का विवाह कर दिया.

‘चौर पंचाशिका’ का पहली बार किसी यूरोपियन भाषा फ्रेंच में 1848 में अनुवाद किया गया.इसके बाद कई भाषाओँ में इसका अनुवाद हुआ.एड्विन अर्नौल्ड और मेथर्स द्वारा इसका प्रकाशन ब्लैक मेरिगोल्ड्स के नाम से किया गया. 

Tuesday, June 9, 2015

मैं सितारों के ख्वाब बुनता हूं

शीराज में हाफिज का मकबरा 
एक शायर की मृत्यु के छह सौ साल बाद भी आज भी उसके देश का कोई ऐसा घर न होगा जहाँ उसके शेर गुनगुनाए न जाते हों,पुस्तक की ऐसी कोई दुकान न होगी जहाँ विभिन्न जगहों से प्रकाशित छोटे बड़े अनेक रूपों में उनका दीवान आज भी दीवानगी की हद तक न बिकता हो.कोई महफ़िल हो या दर्शन उसका उल्लेख लाजिमी है.

वह ईट पर सिर रखकर सोता है और सितारों के ख्वाब बुनता है.आँखों के पानी से सूरज का दामन भिगो सकता है.वह दरवेश भी है और भिखारी भी.पर अपनी टोपी बादशाह के ताज से बदलने को तैयार नहीं.

ये शब्द कहे गए हैं फ़ारसी के अत्यंत लोकप्रिय शायर ‘हाफिज’ के लिए.एक प्रसिद्ध शायर होने के साथ-साथ हाफिज अत्यंत विद्वान,साहित्य के ज्ञाता,साहित्यकार एवं विवेचक भी थे.

हाफिज का जीवनकाल राजनीतिक उथल-पुथल का काल रहा.अपने समय के हालात से हाफिज अछूते नहीं रहे.जब तैमूरलंग इस्फहान के कत्लेआम के बाद शीराज की ओर बढ़ रहा था तो जोशीली शायरी द्वारा हाफिज ने लोगो को एकजुट होकर मुकाबला करने को उकसाया.वह अपने समय के प्रति,अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णतः सजग थे पर अपनी सीमा में बंधे भी महसूस करते थे,इसी दौरान उन्होंने लिखा था...........

‘हालांकि दिल आग से जलकर ख़ाक हो रहा है
पर अपने लबों पर आये लहू को चाटकर खामोश हूं’

हाफिज की कलम से छह हजार से अधिक शेरों ने जन्म लिया.उनमें दर्शन का निचोड़ है एवं उनके पास अन्तर्भेदी दृष्टि है.प्रायः गजल में छह से लेकर पंद्रह शेर होते हैं पर बहुत अच्छी गजलों में ही इन सबमें एक विचार की निरंतरता रहती है.जबकि हाफिज की सभी गजलों में विचार की अटूट कड़ी पायी जाती है.उनमें मानवता के प्रति प्यार एवं आम आदमी की समस्याओं के प्रति सहानुभूति है.

मध्ययुगीन ईरान के आरामपसंद जीवन एवं बेअमल होते हुए भी स्वयं को महान जतलाने का प्रयत्न करना,इस रवैये के विरुद्ध थे.शायद ही विश्व के किसी एक कवि ने इतने लोगों को इतने लंबे काल तक प्रभावित किया हो.

बंगाल में जिस तरह गुरुदेव रवींन्द्र नाथ टैगोर की काव्य रचनाएं प्रत्येक घर का अभिन्न अंग हैं उसी तरह हाफिज पूरे ईरान निवासियों का पारिवारिक सदस्य है.उनका दीवान कुरान के साथ ही अत्यंत सम्मानपूर्वक रखा जाता है.उनके शेर स्कूल की किताब में भी पाए जाते हैं और महफ़िलों,मयखानों में भी सुनाये जाते हैं.अनपढ़ लोग भी उनमें आनंद पाते हैं एवं विद्वानों की सराहना भी पाते हैं.फारसी के नाटकों,वार्ताओं में आज भी वह बहुधा उद्धृत किये जाते हैं.उनकी भाषा सरल और हृदयस्पर्शी है,उसमें एक अंदरूनी लय है.वह अपने शब्दों को यूं चुनते हैं कि फारसी भाषा का पूरा ज्ञान न होने पर भी ह्रदय को बांध लेती है.

अनेक आलोचक हाफिज की तुलना उनके ही समकालीन ,विश्वप्रसिद्ध इतालवी कवि ‘दांते’ से करते हैं.दांते का दर्शन अधिक ठोस,आसपास की,साधारण जन की सच्चाई पर टिका है पर हाफिज की शायरी में इन सबके साथ ही कल्पना की दिलकश उड़ान है.

एक शेर में उन्होंने अपनी महबूबा के गाल के तिल के बदले बल्ख और बुखारा न्यौछावर करने की बात लिखी थी.तैमूरलंग जिनके अधीन ये दोनों शहर थे,जब वह शीराज पहुंचा तो उसने हाफिज को बुला भेजा और क्रोधित होकर जवाब-तलब किया.हाफिज ने बिना संयम खोये और बिना विचलित हुए उत्तर दिया – ‘जहांपनाह,अपनी इसी दरियादिली के कारण ही तो आप देख रहे हैं कि मैं किस कदर फक्कड़ और खस्ताहाल हो चुका हूँ.’

हाफिज की प्रसिद्धि उनके जीवन काल में ही तमाम देशों के साथ हिंदुस्तान भी पहुंची.हिंदुस्तान के दो शासकों मोहम्मद शाह दकिनी और ग्यासअलदीन ने भी उसे बुलाने के लिए राह खर्च भेजा पर वे अपनी मातृभूमि और रुकना नदी का किनारा छोड़कर कहीं जाने को राजी नहीं हुए.दरवेशों और विद्वानों का संग उन्हें बहुत प्रिय था.

हाफिज को शीराज बहुत प्रिय था,जुनून की हद तक प्रिय.कहते हैं वह जीवन में बस एक बार ही शीराज से बाहर गए.बादशाहों के निमंत्रण पर तो नहीं लेकिन भारत के आध्यात्मिक ज्ञान ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और उसी का अध्ययन करने भारत जाने का निश्चय किया पर जब बंदरगाह पहुंचे तो मौसम की खराबी के कारण उस दिन जहाज रवाना नहीं हो सका.विधि का आदेश समझ कर लौट गए और फिर कभी कहीं नहीं गये.

शहरवासियों का अपने शायर के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा ही है कि 1392 में हाफिज की मृत्यु के पश्चात जब उस पर मकबरा बनवाया गया तो शीराज की पुरानी लूटमार और तोड़फोड़ याद करके किसी हमशहरी ने मकबरे की दीवार पर यह शेर लिख दिया..........

‘अगरच जमलः उकाफ शहर गारत करद
खुदाश खैर दहाद आन के इन इमारत करद’

‘पूरे शहर को भी चाहे लूट लेना,पर मेहरबानी करके इस इमारत को छोड़ देना.’

जिस रुकना नदी का किनारा उन्होंने अपनी भ्रमण-स्थली बनाया था और जो हाफिज का संग पाकर अमर हो गयी है उसी के किनारे सरू के घने सायों में ही हाफिज की चिरस्थायी विश्रामस्थली भी बनायी गयी.आज की इमारत अंतिम शाह के पिता शाह रजा द्वारा एक फ्रांसीसी इंजीनियर की देखरेख में बनवाई गयी.वह बीस हजार वर्गमीटर से अधिक के घेरे में है.छत पर,खंभों,दीवारों पर,मुख्य कब्र के पत्थर पर हाफिज की गजलों को सुंदर लिखावट में लिखकर अमर कर दिया गया है.

उद्यान के मुख्य द्वार पर हाफिज का अमर सन्देश है.........

‘मेरी कब्र के पास से गुजरना तो हिम्मत रखना
दुनियांभर के स्वतंत्रता–प्रेमियों की यह इबादतगाह होगी’