Thursday, February 20, 2014

आराम बड़ी चीज है


                               
किस किस को कोसिये किस –किस को रोईए
आराम बड़ी चीज है मुंह ढँक के सोइए

आज के सन्दर्भ में शायर की ये पंक्तियाँ बहुत मौजूं हैं.मनुष्य पंचतत्वों का पिंड मात्र नहीं है.उसकी पांच इन्द्रियां हैं,जिनसे उसे अनुभूति होती है,मस्तिष्क है,जिससे वह सोचता-विचारता है.आदमी की खाल अभी इतनी मोटी नहीं हुई है कि नगरों का प्रदूषण ओढ़कर चैन की सांस ले सके.तनाव और बैचैनी की जिंदगी निश्चय ही कोई नहीं चाहता.आज चैन और इतमीनान की कही जा सकने लायक जिंदगी की ओर लौटने की चाहे जितनी कोशिश की जाए,ज़माने की तेज रफ़्तार और उसके फलस्वरूप उत्पन्न तनाव में कमी आती प्रतीत नहीं होती.मानसिक तनाव से आज समूची दुनियां संत्रस्त है.

हमारे बीच अधिकतर लोग सबेरे उठते हैं और पाते हैं कि दिन बहुत छोटा है और करने को असंख्य काम हैं.बस,भागदौड़ शुरू हो जाती है- घड़ी के काँटों पर नज़र जमाए,बदहवास भीड़ के बीच जल्दीबाजी में आगे निकलने का सिलसिला.बस स्टॉप पर लंबी कतारें,ट्रेन में बेतहाशा भीड़,लिफ्ट में धक्कामुक्की,गाड़ियों के पार्किंग के जगह का अभाव,बाजारों और दुकानों में भीड़ के रेले.हर कोई जल्दी में होता है,फिर भी हर जगह अपनी बारी का इंतजार करने को मजबूर.

दफ्तर,कारखाना,सड़क हो या घर,हर जगह काम का दबाब बढ़ता जाता है.गलतियाँ होती हैं और फिर झुंझलाहट,निराशा और डर आदमी को बैचैन करने लगता है.दिन का काम ख़त्म कर भागता हुआ घर पहुँचता है तो वहां भी मुंह बाये खड़ी कितनी ही समस्याएँ ! परिवार के सदस्यों की भावनात्मक समस्याएँ,बच्चों की जरूरतें और मांगें, पूरा करने के लिए अनेक अधूरे काम,पैसे के बंदोबस्त की चिंता.उसे महसूस होने लगता है कि इस खटते जाने का कोई अंत नहीं है.जिंदगी का बोझ उसकी कुव्वत से कहीं ज्यादा है.

तनाव जब हद से ज्यादा हो जाता है तब शरीर उससे छुटकारे का रास्ता तलाशने लगता है.इसका परिणाम होता है मानसिक बीमारियाँ,नशे की लत या नींद और सुस्त करने वाली गोलियों जैसी दर्द निवारक गोलियों की आदत.मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित एक सर्वेक्षण में यह सामने आया है कि दर्द निवारक दवाईयों के आदी व्यक्तियों की तादाद ब्रिटेन में दुनियां के किसी भी देश से ज्यादा है.इसमें भी महिलाओं की संख्या ज्यादा है.इसकी एक वजह यह भी है कि लोग सोचते हैं कि हर तरह के तनाव की कोई रामबाण दवा मौजूद है.इसमें संदेह नहीं कि आज बहुत कुछ दर्द निवारक दवाएं बाजार में हैं लेकिन उनका इस्तेमाल खास किस्म की बीमारी में समुचित मात्रा में ही किया जाना चाहिए.

हालत यहाँ तक पहुँच जाती है कि डॉक्टर महसूस करता है कि मरीज के लिए दर्द निवारक दवाएं लिखने के सिवा कोई उपाय नहीं है.लगातार दर्द निवारक दवाईयों के प्रयोग से सोचने-समझने की सामर्थ्य पर धुंध छाने लगती है.सुरूर चढ़ने पर लगता है कि कोई समस्या इतनी बड़ी नहीं जिसके लिए परेशान हुआ जाय,लेकिन समस्या अपनी जगह कायम रहती है.दवा का असर ख़त्म होने के बाद अहसास होता है कि हालत पहले से कहीं अधिक बदतर हो गई है.उससे बचने के लिए फिर दर्द निवारक दवाईयों का सहारा.धीरे-धीरे आदमी दर्द निवारक दवाईयों का गुलाम बन जाता है.

दर्द निवारक दवाईयां मनोवैज्ञानिक असर डालने वाली होती हैं,इसलिए वे अस्वाभाविक रूप से शांत बना देती हैं.दर्द अपने आप में कोई बीमारी न होकर किसी बीमारी की सूचना मात्र है.इसलिए जरूरी है कि इलाज सूचना का न करके बीमारी का किया जाय.सर दर्द के अनेकों कारण हो सकते हैं.जिंदगी में गुस्सा होने और आंसू बहाने के कारण भी सामने आते हैं.ऐसे मौके पर दर्द निवारक लेकर अपने आपको भूल जाना और अकारण मुस्कुराते रहना एक तरह का पलायन है.

अपनी दिन-प्रतिदिन की जिन्दगी में सुधार और बिना कोई नुकसान उठाए दबाबों का मुकाबला करने के लिए सीधा और व्यावहारिक उपाय है,आराम करने का तरीका.यह स्वाभाविक उपाय है.जब भी जरूरत पड़े अपने पूरे शरीर को आराम पहुंचाकर तरोताजा हुआ जा सकता है.मनोविश्लेषकों ने आराम के कई उपाय सुझाए हैं.

शुरुआत सबसे सरल स्थिति से की जा सकती है.तकिये पर सिर रखकर आराम से लेट जाइए और पैरों के नीचे भी तकिया रख लीजिए.कुछ देर शांत पड़े रहिए और आराम महसूस करने की कोशिश कीजिए.फिर आँखे बंद कर लीजिए.अब इस प्रकार सांस लेना चाहिए जिससे गहरी सांस फेफड़े में भर सके.इसके बाद जोर से इस सांस को बाहर निकालिए,इस तरह कि हवा के बाहर निकलने की सरसराहट सुनाई दे.शुरू में कई बार इस तरह सांस लीजिए.धीरे-धीरे महसूस होगा कि सांस की रफ़्तार धीमी और गहरी हो गई है.आराम के लिए सांस लेने का यही तरीका है.

अब सोचिए कि आपकी बायीं बांह बिस्तर पर बेजान सी पड़ी है और भारी हो रही है.इतनी भारी और बिस्तर में धंसती हुई कि उसे उठाना कठिन है.इसी तरह दायीं बांह के बारे में सोचिए कि वह कंधे से अँगुलियों तक भारी होकर बिस्तर में धंसी जा रही हैं.

अब गहरी सांस खींचिए और छोड़िए.कुछ देर ठहर जाइए और दोनों पैरों के बारे में सोचिए कि वे बहुत थके हुए और भारी हो गए हैं और अँगुलियों के पोरों तक बिस्तर में धंसे जा रहे हैं.सोचने के साथ फिर गहरी सांस खींचिए और छोड़िए.इसी तरह तकिये पर रखे सिर के बारे में सोचिए और गहरी सांस खीचिए और छोड़िए.

इस तरह करते हुए लगता है कि पूरा शरीर बहुत भारी हो गया है.बिस्तर से उठ पाना बहुत कठिन है और आप बहुत थके हुए हैं.इस हालत में फिर गहरी सांस खींचिए-छोड़िए और शरीर को ढीला छोड़कर आराम से लेट जाइए.ऐसा लगता है कि गहरी सांस खींचने से शरीर को बहुत आराम मिला है और गहरी सांस निकलने के साथ आपका तनाव भी बाहर निकल रहा है.

आराम करने से हालांकि तनाव या समस्याएँ ख़त्म तो नहीं होतीं लेकिन उनसे होने वाली परेशानी दूर हो जाती है.नुकसान दरअसल तनाव से नहीं बल्कि उसके कारण होने वाली उत्तेजना और परेशानी से होता है.सही मुद्रा में आराम से तनाव बाहर निकलने के साथ दिमागी रूप से हल्का और बेहतर महसूस होता है.

Thursday, February 13, 2014

फूलों के रंग से











भारत में बदलती ऋतुएं जीवन को नए स्पर्श दे जाती हैं.मार्च का पहला पखवारा बीतने पर वसंत ऋतु जब अपने पूर्ण यौवन की देहरी तक पहुँच जाती हैं तब सेमल के हजारों वृक्ष एक साथ खिल उठते हैं.उस समय इसकी टहनियों में पत्तियां नहीं होती,चारों ओर केवल कटोरी जैसे लाल और नारंगी फूल ही फूल दिखाई देते हैं.

जगह-जगह बर्फ जैसे सफ़ेद फूलों वाले कैथ के वृक्ष भी मिलते हैं.हलके हरे रंग की रेशमी पत्तियों के साथ झिलमिलाते हुए रूपहले सफ़ेद फूल वृक्षों पर गुंबद की तरह छा जाते हैं.गेहूं के हरे-भरे खेतों के चारों  ओर पानी की नालियों के आसपास किरात के फिरोजी रंगवाले ढेरों फूल उग आते हैं.सरसों के पीले पीले फूलों के साथ अलसी के फूल अपनी नीली छटा से प्रकृति में नया रंग भर देते हैं.

इसके पहले शरद ऋतु में जब धरती पर कांस के दूधिया सफ़ेद फूल छा जाते हैं,उस समय किसी नदी के किनारे धीरे-धीरे झूमते हुए ये फूल ऐसे लगते हैं जैसे सफ़ेद मलमल का कोई दुपट्टा हवा में लहरा रहा हो.फूल-पौधों और उपवनों की खूबसूरती,नीले गुलमोहर की गहरी नीली आभा मन को प्रसन्न करने के लिए काफी हैं.

शहरों और जंगलों के बीच पड़ने वाले गाँव और खेत मनुष्य को फूल,पौधों,हरे-भरे वृक्षों और प्रकृति की छांव में ले जाते हैं.प्रकृति का संपर्क ही उन्हें सहज जीवन की ओर ले जाता है और वन उपवन उनमें अनंत जीवन-शक्ति भर देते हैं.

गेहूं की लहलहाती हुई सुनहरी बालियों के अथाह समुद्र के उस पार दूर-दूर तक फैले हुए ढाक के वृक्ष जब फूलों से लद जाते हैं,तब ऐसा लगता है जैसे हवा में अंगारे उछाल दिये गए हों,या पूरे जंगल में आग लग गई हो.इसलिए ढाक या पलास के इन भड़कीले वृक्षों को लोग वन की ज्वाला भी कहते हैं.होली के अवसर पर पलास के फूलों से पीला रंग बनाया जाता है और इसकी छटा देखते ही बनती है. मार्च के महीने में जब ढाक के पत्ते झर जाते हैं,तब पलास के फूलों से भरी डालियाँ धरती को अनोखा सौंदर्य प्रदान करती हैं.

प्रकृति के इस सौंदर्य से मनुष्य का प्रेम एकतरफा नहीं है.लोककवि के आदिम मन ने बार-बार अनुभव किया है कि मनुष्य का संग पाकर प्रकृति भी प्रसन्न हो जाती है.कवि की कल्पना है कि सावन के महीने में कन्याओं के स्पर्श से पीपल भी बोल उठता है.....

चबूतरों के बिना
पीपल सुहावने नहीं लगते
न फूलों के बिना फुलाही के वृक्ष
हसलियों के साथ
हमेलें अच्छी लगती हैं
बाजूबन्दों के साथ गजराइयां
‘मेरा अहोभाग्य’ पीपल कहता है
‘कन्याओं ने मुझ पर झूले डाले’

महाकवि कालिदास ने अपने काव्य में लाल फूल वाले अशोक की चर्चा की है जो कुछ शहरों में अनायास दिखाई दे जाते हैं.अशोक की डालियों पर गहरे हरे रंग की पत्तियों के बीच मूंगे जैसे लाल रंग वाले फूल मन को सहज ही मोह लेते हैं.लाल रंग प्रेम और श्रृंगार का प्रतीक माना जाता है.इसलिए महिलाएं पांवों में महावर,होठों पर लाली,माथे पर लाल बिंदी और मांग में सिंदूर का इस्तेमाल करती हैं.शोक को हवा में उड़ा देने वाले अशोक के फूल इसलिए प्रिय लगते हैं.

फूलों की खुशबू और उसके रंग सिर्फ साज-श्रृंगार के ही साधन नहीं हैं,ये हमारे मन को मुरझाने से बचाते हैं और हमें हमेशा तरो-ताजा रखते हैं.’अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला की चर्चा करते हुए कालिदास कहते हैं कि उसके ह्रदय पर खस कालेप है,उसकी कोमल कलाइयों में कमलनाल के कंगन हैं,उसकी सखियाँ बार-बार उसके ललाट पर चन्दन का शीतल,सुरभित लेप लगाती हैं और फूलों की शय्या पर वह जिस कुंज में लेटी हैं,वह कुंज पुष्पमालाओं से सुसज्जित है.

वात्सयायन ने विस्तार से उद्यानों के विविध प्रकारों का वर्णन किया है.इन्द्रदेव के अनुपम नंदन-कानन की बार-बार चर्चा हुई है.राजनीतिक शुष्कता और जीवन की नीरसता को सरसता में बदल देने वाले ये उद्यान ही होते थे.शायद इसलिए वात्सयायन का विचार है कि सरोवर के पास घर,उद्यान हो और सरोवर में कुमुद और कमल उगे हुए हों.

आज के युग में किसी भी व्यक्ति के पास फूलों पर लेटने का समय नहीं रह गया है और न जन-सामान्य के पास इतने साधन हैं कि लोग रमणीय उद्यानों का उपयोग कर सकें.आज ऐसे पेड़-पौधों को लगाने में लोग तत्पर रहते हैं जिससे फल या सब्जियां मिल सकें.व्यावसायिक तौर पर फूलों की खेती अलग बात है, लेकिन व्यस्ततम जीवन शैली में स्थान या समय की कमी के कारण फूलों से लदे वृक्ष या पौधे रोपने की परंपरा कम होती जा रही है.

भारतीय साहित्य और संस्कृति में फूल-पौधों की हरीतिमा झलकती है,रंग बिखरे हैं और सुगंध छा गई है लेकिन जीवन की आपाधापी में मन फूलों से लदी डालियों को छोड़कर रेगिस्तान के अनंत विस्तार में भटकने लगा है.

आधुनिक जीवन के तनाव से बचने के लिए सार्वजानिक उद्यानों,हरे-भरे उपवनों की सैर के लिए समय भले ही न हो लेकिन एक गमले में लगे पतली सी टहनी पर झुका हुआ नन्हा सा फूल घर के भीतर छाए हुए उदासी के धुंधलके के वातावरण को सचमुच सरस बना सकता है.

Thursday, February 6, 2014

प्रकृति से मानव तक




         






मनुष्य जब से दुनियां में आया,उसी समय से प्रकृति के अबूझ रहस्यों की थाह लेने में लगा है.बार-बार असफलता का मुंह देखने पर भी वह इस काम से कभी विरत नहीं हुआ.इतने पर भी वह स्वयं अपने बारे में और अपने आसपास के रहस्यों के बारे में बहुत कम जान पाया है.उसके सामने आए दिन कुछ न कुछ ऐसा आता रहता है,जिसे वह चमत्कार मानता है.

सवाल उठता है कि विज्ञान की कसौटी इन चमत्कारों की संतोषजनक व्याख्या कर सकने में कितनी सक्षम है.इसका उत्तर दिया है विख्यात प्राणिशास्त्री डॉ. लयाल वाटसन ने.उनका कहना है कि विज्ञान में सम्पूर्ण तथ्य कुछ नहीं है.भौतिकी के नियम कभी अकाट्य माने जाते रहे,पर आज वे भी अनिश्चय सिद्धांत के घेरे में आ गए हैं.कृति की ज्ञात शक्तियों से जो कुछ न समझा जा सके,वह सब अनिश्चय-सिद्धांत के खाते में चला जाता है.तब क्या कोई ऐसी अज्ञात शक्ति या उर्जा है, जो मनुष्य और उसके ब्रह्मांड को घेरे हुए है.

लगभग यही बात जाने-माने वैज्ञानिक डॉ. जोसेफ बैंक्स राइन ने भी कही है.वे कहते हैं कि हम ऐसा क्यों मान लें कि हमें जो शक्तियां ज्ञात हैं,उनके अलावा कोई और शक्ति है ही नहीं.ऐसा क्यों मान लें कि प्रकृति की सारी शक्तियां समय,स्थान,सामूहिक संबंध के अंतर्गत हैं और मानवीय इंद्रियों से देखी-सुनी जा सकती हैं.

वैज्ञानिकों की इस जिज्ञासा का समाधान प्राचीन हिंदू दर्शन शास्त्र में मिलता है, जो पश्चिमी दर्शन शास्त्र के मुकाबले कहीं बहुत आगे है.भारत के मनस्वी ऋषियों ने हजारों साल पहले कह दिया था कि समस्त जीवन का अस्तित्व उर्जा के लहराते सागर में है.ब्रह्मांडव्यापी विद्युत क्षेत्र के इस विचार को प्राचीन भारत में ‘प्राण’ कहा गया है.आश्चर्य की बात तो यह है कि आधुनिक भौतिकी की खोजें भी इस कथन की पुष्टि करती हैं.सोवियत रूस और चेक गणराज्य में हुए प्रयोगों से इस उर्जा के अस्तित्व का पता चला है.

आधुनिक विज्ञान ठोस पदार्थों को अब ठोस नहीं मानता.उसके अनुसार विश्व में हर चीज की रचना
कंपनों,लहरों की लम्बाई या लहराते अणुओं से हुई है.मेज हो या गुलाब का फूल अथवा किसी प्राणी का शरीर,हर चीज अणुओं के एक निश्चित जमाव के अलावा कुछ नहीं है.अपना फलता फूलता प्रकाशन व्यवसाय छोड़कर हिंदू दर्शन के अध्ययन के लिए आने वाले अमरीकी मनीषी जॉन येल का कहना है कि,कंपनों के भारतीय विज्ञान के अनुसार प्रत्येक मस्तिष्क के गुण होते हैं,जो भार,रंग या गंध के समान प्रकट होते हैं.इन्हें किसी दूसरे मस्तिष्क में निहित सूक्ष्म उपकरणों से देखा जा सकता है.भिन्न-भिन्न मस्तिष्कों की प्रकट होने और ग्रहण करने क्षमता अलग-अलग होती है जो उनकी एकाग्रता के सापेक्ष स्तर पर निर्भर करती है.इस तरह मानसिक वातावरण एक से दूसरे मस्तिष्क में स्थानांतरण हो सकता है.लेकिन जिस किसी भी वस्तु के संपर्क में आते हैं,या जो भी कार्य करते हैं,उस सब पर अपनी व्यक्तिगत छाप भी छोड़ते हैं.

भारतीय दर्शन के कंपन सिद्धांत की जानकारी एक नए इलेक्ट्रोनिक उपकरण से मिलती है,जिसका अविष्कार सोवियत रूस के डॉ. गेनादी सर्गेयेव ने किया है.इसमें उन्हीं द्रव रवों का उपयोग होता है जो इलेक्ट्रोनिक घड़ियों में लगते हैं.इस यंत्र से बेजान पदार्थों की विद्युत धड़कनें भी चुंबकीय फीते पर अंकित हो जाती हैं.अब इन धड़कनों का अनुवाद समझ में आने वाली भाषा में करने का काम रह गया है,और भविष्य में इस पर भी जानकारियां उपलब्ध हो सकेंगी.

डॉ. सर्गेयेव का सिद्धांत है, 'हर व्यक्ति अपने आसपास के वातावरण पर अपनी छाप छोड़ता है. इसलिए कि हमारे शरीर से एक प्रकार की उर्जा हमेशा निकलती रहती है.आसपास की चीजें इसे सोख लेती हैं और अपने पास जमा रखती हैं.उर्जा का विनाश कभी नहीं होता.इस तरह हमारी उर्जा की छाप हमेशा के लिए सुरक्षित रहती हैं.

जो उर्जा उपकरण से अंकित हो सकती है,उसे क्या सूक्ष्म और चेतन मस्तिष्क से नहीं देखा जा सकता? कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो किसी वस्तु या व्यक्ति का मात्र स्पर्श करते ही उससे संबंधित हर बात और यहाँ तक कि पूरा इतिहास बता देते हैं.इनमें नीदरलैंड के पीटर हरकोस बहुत प्रसिद्द हैं.एक बार सीढ़ी से गिरने पर उनकी खोपड़ी की हड्डी टूट गई थी.इलाज से वह जुड़ तो गई,लेकिन हरकोस एकाग्र हो सकने की क्षमता खो बैठे,किंतु उन्हें एक नयी क्षमता मिल गई.एक बार हेग की पुलिस ने उनसे एक मामले में मदद ली.हरकोस ने मृतक का कोट हाथ में लेकर हत्या की समूची घटना का विस्तार से विवरण दे दिया.

समस्त जीवन के आधार-उर्जा के लहराते सागर पर अविश्वास अब इसलिए भी नहीं किया जा सकता,क्योंकि इस उर्जा को अब देखा जा सकता है,किरलियन छाया चित्रों के जरिये.सोवियत रूस के निवासी सेमेयोन किरलियन बिजली के माहिर मिस्त्री थे.उन्होंने ही अनजाने में किरलियन फोटो-पद्धति का अविष्कार किया था.

दुनियां के लगभग हर धर्म में आत्मा के अस्तित्व का उल्लेख है.तब क्या जीवन की यह आभा या चिनगारी ही आत्मा का सार तत्व है.क्या भौतिक शरीर के अलावा भी आदमी का कोई और शरीर होता है.सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व की बात भारत,मिस्त्र,और चीन के प्राचीन ग्रंथों में मिलती है.ईसाई संतों का भी इस बात में विश्वास रहा.ऐसे योगियों की कई कहानियां हैं जो अपना सूक्ष्म शरीर प्रदर्शित कर सकते थे.

भारत के पौराणिक साहित्य में एक ही व्यक्ति के एक समय दो या अधिक स्थानों में मौजूद होने के प्रचुर वर्णन हैं,परन्तु आधुनिक समय में पश्चिमी जगत का ऐसा सबसे पहले दर्ज हुआ उदाहरण अल्फोंसस लिगुओरी का है.वह एक दिन एरिएनजो स्थित अपने आश्रम में सोया हुआ था.यह स्थान रोम से काफी दूर था.उस दिन दो घंटे की गहरी नींद से उठने के बाद उसने बताया कि वह पोप के सिरहाने था और पोप की अभी-अभी मृत्यु हो गई है.जब पोप के निधन की खबर एरिएंजो पहुंची तो लोगों ने लिगुओरी की बात को महज संयोग माना.लेकिन जल्दी ही रोम से यह सूचना भी मिली कि पोप के कमरे में लोगों ने  लिगुओरी को देखा और उससे बात भी की थी.

भौतिक शरीर से दूर होकर सूक्ष्म शरीर के यात्रा करने के तथ्य की भी प्रयोगशालाओं में कई बार जांच हुई है.1973 में अमेरिका की चर्चित जासूसी संस्था सी.आई.ए. ने भी इस संबंध में एक प्रयोग किया,जिसमें इंगोस्वान और पैट प्राइस शामिल हुए.कैलिफोर्निया के स्टेनफोर्ड शोध संस्थान में भौतिकविद फुटहोफ और रसल टार्ग द्वारा किये गए इस प्रयोग के चमत्कारी निष्कर्ष निकले.

इस संबंध में प्राप्त जानकारियों को देखते हुए आधुनिक वैज्ञानिक गंभीरता से विचार करने लगे हैं कि मस्तिष्क और मन कोई एक चीज नहीं हैं.वे मानने लगे हैं कि मानसिकता का संपूर्ण कारण अकेला स्थूल मस्तिष्क नहीं हो सकता और एक अशरीरी मन है,जो शारीरिक मस्तिष्क का उपयोग करता है.