Wednesday, October 16, 2019

कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बढ़ते दायरे


इन दिनों AI अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता के दायरे बढ़ते जा रहे हैं.तमाम छोटी बड़ी कंपनियों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता से सुसज्जित उपकरणों को पेश करने की होड़ मची है.बेशक इनमें गूगल और अमेजन जैसी अमेरिकी कम्पनियां काफी आगे हैं और इन्होने आवाज से संचालित कई उपकरणों को पेश किया है और आने वाले दिनों में कई अन्य कम्पनियाँ भी इस होड़ में शामिल हों तो कोई आश्चर्य नहीं. बेशक इन सभी उपकरणों ने मानव जीवन को आसान बना दिया है लेकिन खतरे भी कम नहीं हैं.

सामान्य तौर पर समझा जाता है कि इंसानों में ये गुण प्राकृतिक रूप से पाया जाता है कि उनमें सोचने-समझने और सीखने की क्षमता होती है ठीक उसी तरह एक ऐसा सिस्टम विकसित करना जो आर्टिफिशियल तरीके से सोचने, समझने और सीखने की क्षमता रखता हो और व्यवहार करने और प्रतिक्रिया देने में मानव से भी बेहतर हो, उसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कहते हैं।

कई बार हम रोबोट को AI  समझ लेते हैं जबकि रोबोट तो ऐसा सिस्टम है जिसमें AI डाला जाता है। असल में कृत्रिम बुद्धिमत्ता एक ऐसी विधि है जिसमें ऐसा सॉफ्टवेयर डवलप किया जाता है जिससे एक कंप्यूटर इंसान की तरह और इंसान से भी बेहतर रेस्पॉन्स दे सके। 

1955 में जॉन मकार्ति ने AI को कृत्रिम बुद्धि का नाम दिया और उसे  विज्ञान और इंजीनियरिंग के बुद्धिमान मशीनों बनाने के के रूप परिभाषित किया. कृत्रिम बुद्धि अनुसंधान के लक्ष्यों में तर्क, ज्ञान की योजना बना, सीखने, धारणा और वस्तुओं में हेरफेर करने की क्षमता, आदि शामिल हैं. वर्तमान में, इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सांख्यिकीय विधियों, कम्प्यूटेशनल बुद्धि और पारंपरिक खुफिया शामिल हैं. कृत्रिम बुद्धि का दावा इतना है कि मानव की बुद्धि का एक केंद्रीय संपत्ति एक मशीन द्वारा अनुकरण कर सकता है. कभी दार्शनिक मुद्दों के प्राणी बनाने की नैतिकता के बारे में प्रश्न् उठाए गए थे. लेकिन आज, यह प्रौद्योगिकी उद्योग का सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य हिस्सा बन गया है।

कृत्रिम बुद्धि (एआई) का दायरा विवादित है: क्यूंकि मशीनें तेजी से सक्षम हो रहे हैं, जिन कार्यों के लिए पहले मानते थे कि होशियारी चाहिए, अब वह कार्य "कृत्रिम होशियारी" के दायरे में नहीं आते। उद्धाहरण के लिए, लिखे हुए शब्दों को पहचानने में अब मशीन इतने सक्षम हो चुके हैं, की इसे अब होशियारी नहीं मानी जाती.आज कल, एआई के दायरे में आने वाले कार्य हैं, इंसानी वाणी को समझना. शतरंज  के खेल में माहिर इंसानों से भी तेज, बिना इंसानी सहारे के गाड़ी खुद चलाना आदि.

कृत्रिम बुद्धि का वैज्ञानिकों ने सन 1955 में अध्धयन करना शुरू किया. शुरुआत में  असफलता से निराशा, और फिर नए तरीके अपनाए गए जो फिर आशा जगाते थे. 

AI से सुसज्गूजित नवीनतम उपकरणों में गूगल होम,गूगल होम मिनी.गूगल स्मार्ट हब के साथ अमेजन के इको डॉट,इको शो,फायर टीवी स्टिक आदि उपकरण जहाँ विदेशों में काफी लोकप्रिय रहे हैं वहीँ भारत में भी इन उपकरणों ने पैठ बनानी शुरू कर दी है.भारतीय बाजार को अपने अनुकूल बनाने के लिए अब हिंदी भाषा का सहयोग भी इन उपकरणों को मिलने लगा है.स्मार्ट उपकरणों ने मानव जीवन को न केवल आसान बना दिया है बल्कि समय के बचत की उपयोगिता भी सिद्ध की है.स्कूली बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में यह अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है.

लेकिन आने वाले खतरे भी कम नहीं हैं. मशहूर अमेरिकी लेखक डैन ब्राउन ने 2017 में अपने उपन्यास ‘The Origin’ में इसी विषय को उठाया है.रॉबर्ट लैगडन श्रृंखला के इस उपन्यास में ब्राउन ने विंस्टन नाम के एक AI(आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस) को प्रस्तुत किया है.स्पेन की पृष्ठभूमि में रची गई इस कथानक में प्रमुख भूमिका विंस्टन की है. आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस क्या-क्या कारनामे कर सकता है,इसको तो दर्शाया ही गया है साथ ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता के खतरे के प्रति भी यह उपन्यास सचेत करता है.अंततः रॉबर्ट लैंगडन अपने दोस्त द्वारा विकसित AI विंस्टन को समाप्त करने का निर्णय ले लेता है.

आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जहाँ उपयोगी साबित हो रहा है वहीँ इसकी सहायता से आज स्मार्टहोम की परिकल्पना साकार हो रही है.आज जरूरत है इसके विवेकपूर्ण इस्तेमाल की जिससे विज्ञान की इस परिकल्पना का समुचित सदुपयोग किया जा सके. 

Saturday, March 17, 2018

अनकहे चित्रों की दास्तान

Top post on IndiBlogger, the biggest community of Indian Bloggers
गृह युद्ध से त्रस्त सीरिया के बच्चे 
गृहयुद्ध से त्रस्त सीरिया से पिछले दिनों आयी चित्रें काफी विचलित कर देने वाली हैं.किसी युद्धरत देश में आम जनजीवन किस कदर बदहाली में जीवन व्यतीत करता है ,चित्रों से काफी बयां हो जाते हैं.

पिकासो का चित्र 'गेर्निका'
युद्ध की विभिषिका से ग्रस्त एक देश के हालात को दर्शाते हुए मशहूर चित्रकार पाब्लो पिकासो द्वारा 1936-37 में बनाये गए चित्र ‘गेर्निका’  युद्ध की विभीषिका को बखूबी दर्शाते हैं.’गेर्निका’ में अंधकार में डूबा दृश्य और बीच में जलता हुआ, तेज प्रकाश देता बिजली का बल्ब.दायें एक औरत आतुर,पीड़ा से चीत्कार करती हुई.खिड़की में बेबसी से बाहें फैलाये.एक औरत दरवाजे से आँगन में प्रवेश करती हुई-भयभीत,प्रश्नसूचक.बाएं एक और औरत,गोद में युवा शिशु और एक अन्य औरत की मुखाकृति,इस सारी बर्बरता की चश्मदीद गवाह.एक सैनिक की धराशायी,भग्न प्रतिमा.कटे हाथ में टूटी तलवार.सिर गर्दन से अलग एवं मुंह पीड़ा से खुला हुआ.एक हाथ तनहा फूल की ओर बढ़ता हुआ.एक बैल जिसका सिर मृत शिशु लिए क्रंदन करती हुई औरत की ओर मुड़ा हुआ है,सीधा ताना हुआ,टेढ़े सींग आक्रमणकारी.उठी हुई पूँछ.केंद्र के प्रकाश के नीचे एक घोड़ा.सिर पीछे की ओए झुका हुआ-दांत बाहर निकले हुए और शरीर में पेबस्त भाले के दर्द से बिलबिलाता हुआ. एक पक्षी इस दृश्य से दूर ऊपर की ओर उड़ता हुआ.लिली और पोस्त के फूल और इन सब पर आयी हुई बमबारी से उत्पन्न गहरे धुएं की कालिमा,एक अँधेरा,और सबकुछ जो मानवीय है ,प्रकाशित है, सुंदर है,पीड़ा से त्रस्त है.दंभ और फासीवाद का प्रतीक है – बैल.

स्पेन के बास्क प्रांत की राजधानी ‘गेर्निका’,बास्क के प्राचीनतम नगर और उसकी सांस्कृतिक परंपरा के केंद्र को स्पेन के तानाशाह जनरल फ्रांसिस्को फ्रांको के आदेश से युद्धक विमानों ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था.इस भयावह विनाश औरम्रत्यु यंत्रणा का दस्तावेज एक कलाकृति के रूप में प्रस्तुत किया पाब्लो पिकासो ने.’गेर्निका’ का भित्तिचित्र युद्ध की विभिषिका को तो चित्रित करता ही है लेकिन इसके साथ ही मानव मूल्यों,मनुष्य के साहस, उसकी  आध्यात्मिक शक्ति और करूणा को भी प्रस्तुत करता है.

‘गेर्निका’ की कलाकृति से कई प्रश्न उपस्थित होते हैं.गेर्निका पर हवाई हमला दिन के समय हुआ लेकिन पिकासो ने रात का दृश्य प्रस्तुत किया है.गेर्निका भले ही एक छोटा नगर था लेकिन इतना भी नहीं कि बंद घेरे में प्रस्तुत किया जाय.फिर कहीं भी बम वर्षा का दृश्य या प्रतीक नहीं है.घोड़े के शरीर में भाला पेबस्त है,सैनिक के हाथ में तलवार.लेकिन यह युद्ध घोड़ों,तलवारों या भालों का नहीं था.अन्य युद्ध कलाकारों की भांति पिकासो ने आधुनिक मशीन,तोप या विमान को प्रस्तुत नहीं किया.चित्र में रेंखांकित चार औरतें किसकी प्रतीक हैं? क्या यह एक ही औरत के चार विभिन्न रूप हैं.पिकासो ने औरतों को ही महत्त्व क्यों दिया? पिकासो के प्राथमिक प्रारूपों में भूमि पर पड़ी टूटी-फूटी प्रतिमा के स्थान पर ‘जीवित ‘ मनुष्य की आकृति थी.इस तरह के कई सवाल जेहन में उभरते हैं.

शायद इन सवालों के जवाब ढूंढें भी जा सकते हैं.’गेर्निका’ का दृश्य अंधकारमय इसलिए है कि युद्धक विमानों ने आकाश को ढक लिया था और उसकी काली छाया नगर पर छा गयी थी.जलते हुए शहर से उठते हुए धुएं ने सूर्य को ग्रस लिया था.नगर पर बमवर्षा का प्रमाण भग्न प्रतिमा,मृत शिशु और बैल की मशाल जैसी जलती पूँछ है.पिकासो के विचार में मशीन से अधिक प्रभावशाली प्रतीक भाला और तलवार हैं.चार औरतों का एक दृश्य में होना दमन और पाशविक बर्बरता की तीव्रता को प्रदर्शित करना है क्योंकि युद्ध या अपराध में सबसे ज्यादा अमानवीयता का शिकार  स्त्रियाँ ही बनती हैं-स्त्री सृष्टि,जीवन,करूणा और गति का प्रतीक है.भग्न प्रतिमा ध्वंस को चित्रित करती है,जो शायद जीवित मनुष्य के चित्रण से संभव नहीं था.बैल क्रूर, फासिस्ट आक्रमण और हिंसा का प्रतीक है - जो अपने संपूर्ण दृश्य पर हावी है.

तमस और पाशविकता का प्रतिबिंब घोड़े के मुकाबले में उभरकर सामने आया है.घोड़ा वास्तव में जीवन का प्रतीक है.दो औरतें घोड़े के सिर की ओर ही देख रही हैं - एक चेहरा ऊपर करके और दूसरी सिर झुकाकर.उन दोनों के चेहरे समान से हैं लेकिन घोड़े की गरदन दूसरी ओर मुड़ी हुई है - जीवन मृत्यु के चंगुल में है.स्पेन के गणतंत्र की दम तोड़ती जिंदगी का प्रतीक.पक्षी घोड़े की कल्पना को और अधिक सुदृढ़ करता है - जैसे वह घोड़े के श्वास के साथ बाहर निकलकर उड़ रहा हो.पक्षी मनुष्य की स्वच्छंद कामना,स्वाधीनता,अनंत आशा और कल्पना की शक्ति का प्रतीक हैं.

नेत्र-ज्योति और सूर्य ज्योति एक अद्भुत संयोजन प्रस्तुत करते हैं जो तमस को नग्न कर देते हैं और आशा की किरण बनकर पूरे दृश्य को आलोकित कर देते हैं.दुनियां से ज्योति कभी मिटती नहीं.फूल जीवन सौन्दर्य और कोमलता के प्रतीक हैं.



Saturday, March 10, 2018

फूल और व्यक्ति का स्तर



विश्व इतिहास में अन्यत्र ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि एक पुष्प,एक संस्कृति,व्यापार,सभ्यता और राष्ट्र का पर्यायवाची बन जाए.यदि किसी फूल के पौधे के जड़ का किसी के पास होना उसके समृद्ध होने का द्योतक हो तो सचमुच हैरत की बात है.बहुत सावधानी से इसकी सुरक्षा का प्रबंध किया जाना और फूल खिलने पर उतनी ही शान से इसका प्रदर्शन किया जाना तथा उसके वैभव - समृद्धि का वर्णन होने पर उसके इस फूल के संग्रह की संख्या बताया जाना रोचक तो है ही और शायद ही इतना महत्त्व किसी और पुष्प को मिला हो.

एक कटोरीनुमा फूल जो साल भर में केवल एक बार खिलता हो,वह सम्पूर्ण देश का पर्याय बन जाए तो जरूर उसमें कुछ अनूठापन होगा.इस अनूठे पुष्प ट्यूलिप का इतिहास बहुत ही रोचक है.यह पुष्प वस्तुतः तुर्किस्तान,एशिया माइनर का निवासी था और वहां के निवासी इसे ‘ट्यूलिपान’ कहकर पुकारते थे.

सबसे पहले इसका विवरण आस्ट्रिया के निवासी राजदूत ओ.डी. वास्वेक ने कुस्तुनतूनिया से सम्राट फर्निनेंड को अपने एक पत्र में दिया और साथ ही उन्हें उपहार स्वरूप इसकी कंदनुमा जड़ें भी उन्हें भेजीं.वह 1554 में जब कुस्तुनतूनिया पहुंचा तो उसने सम्राट को लिखा-“रास्ते में चारों ओर लाल रंग के विचित्र प्रकार के सुंदर पुष्प खिले हुए थे और ट्यूलिपान नाम से प्रसिद्ध इन पुष्पों के द्वारा वहां लोगों ने जगह-जगह पर मेरा स्वागत किया.” सम्राट ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया.

राजदूत वास्वेक एक प्रकृतिप्रेमी पुष्पों का संग्रहकर्त्ता भी था,वियना वापस आने पर वह अपने साथ ट्यूलिप की कन्द्नुमा जड़ें लेता आया.वियना के उस युग के प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी तथा पुष्प प्रेमी कोनार्ड गिसनर ने ऑक्सबर्ग शहर से इसकी जड़ें प्राप्त करके इसे अपने उद्यान में लगाया.वसंत ऋतु के आने पर जब इसका फूल खिला ,तो चर्चा का विषय बन गया और हर व्यक्ति इसे पाने को आतुर हो उठा.डच लेखक हबलुयत के अनुसार सोलहवीं सदी के अंत में इंगलैंड में वियना से लाकर ट्यूलिप बोया गया.

यद्यपि सुंदरता के अतिरिक्त इस पुष्प की और कोई उपयोगिता नहीं थी.फिर भी सोलहवीं शती में इसका शौक संक्रामक रोग की तरह फ़ैल गया.एक इतिहासकार ने इसे ‘ट्यूलिपोमिया’ का नाम दे दिया.पूरे यूरोप में विशेष कर पश्चिमी उत्तरी यूरोप और इंगलैंड में बड़े हों या छोटे,स्त्री हों या पुरूष,धनी हों या निर्धन - सभी इसे पाने को लालयित हो उठे.यहाँ तक कि इसके लिए जमीन जायदाद तक बेचने लगे.एम्सटरडम,हार्लेम,लीडन,रोटरडम आदि शहर ट्यूलिप के व्यापार केंद्र बन गए.

ट्यूलिप के  कंद अपने आकार एवं वजन के अनुसार बेचे जाते थे.19 वीं शताब्दी में इंगलैंड में इसका शौक इतना परवान चढ़ा कि इसके कंद सौ से लेकर डेढ़ सौ पौंड तक में बिके.एक कंद के बदले बारह एकड़ भूमि तक दे दी गयी.जिनके पास धन नहीं था उन्होंने जमीन,पशु,फर्नीचर और शरीर के आभूषण तक दे डाले.

इसका मूल्य इतना अधिक था ,यह इसी घटना से पता चलता है कि तुर्की से आने वाले एक जहाज के नाविक ने भूख लगने पर इस कंद को भूल से प्याज की गांठ समझ,सिरके में भिंगोकर डबलरोटी के साथ खा लिया तो उसका मूल्य चुकाने के लिए उसे कई वर्षों तक उसके स्वामी के पास मुफ्त में काम करना पड़ा.

सत्रहवीं शताब्दी में हॉलैंड में जगह-जगह ट्यूलिप के व्यापार केंद्र खुल गए.शहरों की सरायें न केवल यात्रियों के आराम एवं मनोरंजन का ध्यान रखतीं बल्कि ट्यूलिप के आदान प्रदान  का केंद्र बन गयीं.नए रंग के पुष्पों के कंद का मूल्य बढ़ता चला गया और एक समय ऐसा भी आया जब यह व्यापार एक जुआ बन गया.लोगों के पास देने के लिए कुछ न रहा और वे दिवालिया हो गए.विवश होकर हॉलैंड सरकार को इसके व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा.ऐसे नियम बनाये गए ताकि सुनिश्चित ढंग से इसकी कृषि को प्रोत्साहित किया जा सके.

अब ट्यूलिप के व्यापार के लिए लाईसेंस का प्रावधान है.फूल एवं कंद  की बिक्री पर पूरी जांच-पड़ताल होती है.इस प्रकार ट्यूलिप की खेती को न केवल राष्ट्रीय संरक्षण प्राप्त हुआ बल्कि मूलतः विदेशी होने पर भी उसे राष्ट्रीय पुष्प घोषित किया गया.